आप सभी को संपादकीय टीम की तरफ से नवरात्रों, दशहरा और दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ। हम सभी हृदय से यही
चाहते है की बुराई पर अच्छाई की जीत हो, हम सब खुशहाल रहें। पर
आज जिंदगी की जेटयुगी रफ्तार ने हमारी बुद्धि को जैसे जकड़ लिया हो। हम अपने भीतर पनपते
रावण को नज़रअंदाज़ कर, दूसरों
के मन के रावण, देश में फैले रावण को तो देख रहे हैं। पर हमारे मन
में पैर पसारे जो बुराईरूपी रावण बैठा है, उससे
निजात पाने के बारे में नहीं सोच रहे। काम, क्रोध,
लोभ, घृणा,
द्वेष, अंहकार रूपी हमारे अपने भीतर कितने-कितने
रावण हैं, क्या
हमने कभी उन्हें किंचित भी मारने का प्रयास किया है? रावण महा विदुषी था, ज्ञानी था पर उसके अहंकार ने उसके ज्ञान को दबा कर उससे ऐसे
कर्म करवाए की आज हम प्रतीक के रूप में हर साल उसको सिर्फ जला कर केवल एक खानापूर्ति
कर लेते है, और सोचते है कि, चलो रामलीला
करके और अंत में रावण जला कर बहुत सबब का काम कर लिया और राम जी हमारा भला करेंगे।
अगली सुबह फिर वही समज मे भ्रष्टाचार, मार काट, लोभ और राजनीतिक उठा-पटक से भरा अख़बार का पन्ना हाथों में लिए, चाय की चुसकियाँ लेते मन ही मन दूसरों को गाली देते अपने-अपने काम पर चल देते
हैं, क्योंकि हमने तो कल रात ही रावण का पुतला जलाया है न, तो हम क्यों सोचें कुछ और। ऐसे में कागज का रावण तो जला पर, मन के रावण का हमने क्या किया? होना तो यही चाहिए
पहले उसे मार दें तब दुनिया की
सोचें। इसी कड़ी में सबसे पहले घर से बात
शुरू करूंगी.... लगभग सभी औरतों को बचपन से
ही परिवार में खूब प्यार मिलता है। जो नहीं मिलता वो इज्जत है। माँ बनने के बाद ही
उसे थोड़ी-बहुत इज्जत मिलती है और कभी-कभी वो भी नहीं मिलती। औरत तब सबसे ज्यादा दुखी
होती है, जब उसकी खुद की सन्तान उसका अपमान कर
बैठती है...
पर ऐसा होता क्यों है? जिस परिवार
में पति अपनी पत्नी की इज्जत नहीं करता, उस परिवार में बच्चे
कैसे कर सकते हैं...हाँ, प्यार बहुत करते हैं माँ को। क्या कभी
किसी ने यह अंतर समझने की ज़रूरत समझी है? यहाँ जरूरत है मर्द
को, पति को अपने अहंकार रूपी रावण को मार कर पत्नी को एक इंसान
समझ उसके गुणों के चलते इज्ज़त देने की। औरत को वो एक वस्तु न समझे। और यह शुरुवात हर
वो माँ-बाप अपने घर से करें जिनके पास बेटा है और वो भविष्य का होने वाला पति और पिता
है। रावण को जलाए जाने की प्रथा को, पूरे प्रसंग को राम के वचनों, मर्यादा निभाने, माता-पिता तथा पत्नी को सम्मान देना, सब बातें बचपन से ही सकारमत्क रूप से बताई जाये तो निश्चित ही, बाल मन पर पड़ी छाप दीपावली का अर्थ सिर्फ मिठाई और आतिशबाज़ी न होकर एक नेक
इंसान बनने के राह बनेगी।