Tuesday 7 February 2012

खिड़कियाँ




लफ़्ज़ों के झाड़ ऊगे रहते थे

जब तुम थे मेरे साथ

हम दोनों थे हमारे पास

रिश्ते की ओढनी थी

लफ़्ज़ों के रंगीले सितारे 

टंके ही रहते थे

नशीले आसमां पर.....

फिर तुम चले गए

कई बरसों बाद

अचानक एक मुलाक़ात

हम ओढनी के फटे हुए

टुकड़ों की तरह मिले

मेरा टुकड़ा

तुम्हारे सड़े टुकड़े के साथ

पूरी न कर पाया वो अधूरी नज़्म

सिसकते टुकड़ों पर फेर लकीर

सांस लेने के लिए

खोल दी है मैंने

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11 comments:

  1. वाह ...बहुत ही सुंदर भाव संयोजन किया है आपने...लाजवाब प्रस्तुति

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  2. रिश्ते की ओढनी लफ़्ज़ों के सितारे ... वाह.. बहुत खूब... एकदम अनूठी कल्पना...

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  3. khikiyaan khol dene par hawa aur roshni ke liye raah ban jaati hai.sundar kavita ke liye badhaai.

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  4. Nayee bhav-bhuumi par rachee gayee aik behtreen kavita.Hardik badhai,Dr.Sahiba.

    MEETHESH NIRMOHI,JODHPUR[RAJASTHAN].

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  5. ऐसे ही दम घुटता है जब मन मिलकर भे बेमेल हो जाते हैं। बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्‍ति !
    बधाई अनिता जी!

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  6. बेहतरीन रचना
    पंक्तियों के सुन्दर भाव
    .............. लफ़्ज़ों के झाड़ ऊगे रहते थे

    जब तुम थे मेरे साथ

    हम दोनों थे हमारे पास

    रिश्ते की ओढनी थी

    लफ़्ज़ों के रंगीले सितारे

    टंके ही रहते थे

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  7. पूरी न कर पाया वो अधूरी नज़्म
    bahut sundar

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  8. sunder bhavon se saji kavita
    badhai
    rachana

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