Thursday, 22 November 2012

संपादकीय "यादें" नवम्बर, 2012 अंक



आप सभी को संपादकीय टीम की तरफ से नवरात्रों, दशहरा और दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ। हम सभी हृदय से यही चाहते है की बुराई पर अच्छाई की जीत हो, हम सब खुशहाल रहें। पर आज जिंदगी की जेटयुगी रफ्तार ने हमारी बुद्धि को जैसे जकड़ लिया हो। हम अपने भीतर पनपते रावण को नज़रअंदाज़ कर, दूसरों के मन के रावण,  देश में फैले रावण को तो देख रहे हैं। पर हमारे मन में पैर पसारे जो बुराईरूपी रावण बैठा है,  उससे निजात पाने के बारे में नहीं सोच रहे। काम,  क्रोध,  लोभ,  घृणा,  द्वेष,  अंहकार रूपी हमारे अपने भीतर कितने-कितने रावण हैं,  क्या हमने कभी उन्हें किंचित भी मारने का प्रयास किया है?  रावण महा विदुषी था, ज्ञानी था पर उसके अहंकार ने उसके ज्ञान को दबा कर उससे ऐसे कर्म करवाए की आज हम प्रतीक के रूप में हर साल उसको सिर्फ जला कर केवल एक खानापूर्ति कर लेते है, और सोचते है कि, चलो रामलीला करके और अंत में रावण जला कर बहुत सबब का काम कर लिया और राम जी हमारा भला करेंगे। अगली सुबह फिर वही समज मे भ्रष्टाचार, मार काट, लोभ और राजनीतिक उठा-पटक से भरा अख़बार का पन्ना हाथों में लिए, चाय की चुसकियाँ लेते मन ही मन दूसरों को गाली देते अपने-अपने काम पर चल देते हैं, क्योंकि हमने तो कल रात ही रावण का पुतला जलाया है न, तो हम क्यों सोचें कुछ और। ऐसे में कागज का रावण तो जला पर, मन के रावण का हमने क्या किया? होना तो यही चाहिए पहले उसे मार दें तब दुनिया की सोचें। इसी कड़ी में सबसे पहले घर से बात शुरू करूंगी.... लगभग सभी औरतों को बचपन से ही परिवार में खूब प्यार मिलता है। जो नहीं मिलता वो इज्जत है। माँ बनने के बाद ही उसे थोड़ी-बहुत इज्जत मिलती है और कभी-कभी वो भी नहीं मिलती। औरत तब सबसे ज्यादा दुखी होती है, जब उसकी खुद की सन्तान उसका अपमान कर बैठती है...
पर ऐसा होता क्यों है? जिस परिवार में पति अपनी पत्नी की इज्जत नहीं करता, उस परिवार में बच्चे कैसे कर सकते हैं...हाँ, प्यार बहुत करते हैं माँ को। क्या कभी किसी ने यह अंतर समझने की ज़रूरत समझी है? यहाँ जरूरत है मर्द को, पति को अपने अहंकार रूपी रावण को मार कर पत्नी को एक इंसान समझ उसके गुणों के चलते इज्ज़त देने की। औरत को वो एक वस्तु न समझे। और यह शुरुवात हर वो माँ-बाप अपने घर से करें जिनके पास बेटा है और वो भविष्य का होने वाला पति और पिता है। रावण को जलाए जाने की प्रथा को, पूरे प्रसंग को राम के वचनों, मर्यादा निभाने, माता-पिता तथा पत्नी को सम्मान देना, सब बातें बचपन से ही सकारमत्क रूप से बताई जाये तो निश्चित ही, बाल मन पर पड़ी छाप दीपावली का अर्थ सिर्फ मिठाई और आतिशबाज़ी न होकर एक नेक इंसान बनने के राह बनेगी।

संपादकीय "यादें" अक्टूबर, 2012 अंक



वैश्विक परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में आज हिन्दी भाषा की जब चर्चा होती है, तो देखते है कि, विश्व के स्तर पर हिन्दी भाषा के महत्व को अब व्यापक स्वीकृति मिल रही है। हिन्दी न सिर्फ संवाद का माध्यम है अपितु संस्कृति और साहित्य की भी सबल समर्थ स्ंवाहिका बन गयी है। भारत में अंग्रेजी की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद आँकड़ों के हिसाब से हिन्दी बोलने वालों की संख्या दुनिया में आज तीसरे नंबर पर है। विदेशी विश्वविद्यालयों ने हिन्दी को एक महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में अपनाया है। आज विदेशों  में बसे प्रवासी भारतीय के मन में यह सवाल कुछ धुंधला सा  होता जा रहा  है...."कि अपना देश छोड़ कर हम यहाँ क्यों आ बसे हैं. हमारे इस फैसले से कहीं हमारें बच्चें अपनी संस्कृती और भाषा से दूर तो नहीं हो जायेंगे?..आदि आदि "! भारत से विदेशों में आने का वैसे तो एकमात्र कारण आर्थिक बहुलता, धन वैभव एवं एक उत्तम  जिंदगी बसर करना ही है। पर साथ ही में वो बच्चों को बिलकुल उसी प्रकार से पालना और संस्कार देना चाहते है..जैसे वो भारत में रहते हुए दे सकते थे... और बिलकुल वैसा होना संभव भी हो पा रहा है, तो उसका श्रेय, यहाँ की बहुत सी सामाजिक संस्थाएं और स्कूल्स को भी जाता है, जो हिन्दी के प्रचार-प्रसार में जी जान से जुटी हैं।
यहां कई संगठन हिन्दी के प्रचार का काम करते हैं। न सिर्फ भारतीय मूल के बच्चे वरन यहाँ के स्थानीय अमरीकन भी, भारत की संस्कृति से रूबरू होने के लिए हिन्दी सीखने की इच्छा रखते हैं।भारत ने दुनिया को वैसे भी काफी कुछ दिया हैं शुन्य से लेकर दशमलव तक, गढ़ित से लेकर कालगढ़ना तक। ऐसे ही अब हिंदी की बारी है। हिंदी भाषा तो बहुत सरल है। हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए अमरीका के कैलिफोर्निया, न्यू योर्क ,नोर्थ करोलिना और टेक्सास में विशेष रूप से बहुत काम किया जा रहा है। बच्चों में हिंदी के प्रति  रूचि पैदा करने के लिए हिंदी फिल्मों और गीतों का भी उपयोग किया जाता है जैसे गायन और नृत्य प्रतियोगिता।

जब संस्कृति की बात चलती हैं तो धर्म अनायास ही, जुढ़ा ही रहता है। अमरीका में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को मैंने अपने यहाँ प्रवास के दौरान ज्यादा ही धार्मिक पाया है। साहित्य की महक बनी रहे उसका प्रयास अमरीका की हिंदी समितियां लगातार करती रही है... कवि-सम्मलेन और हिंदी-गोष्ठियों के माध्यम से। भाषा के विकास और प्रचार के लिए पत्र-पत्रिकाओं का बहुत बड़ा योगदान होता है। अमरीका, कनाडा, यू.के. और औस्ट्रेलिया से कई पत्रिकाएँ और समाचार पत्र लगातार प्रकाशित हो रहे है। जनसंचार माध्यम से हिंदी को लोकप्रिय बनाने में जनसंचार माध्यमों का भी अत्यधिक योगदान है। रेडियो, टेलीविजन, और अब इंटरनेट के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता। भाषा, संस्कृति और धर्म एक त्रिकोण हैं और हमेशा ही जुढ़े रहते हैं। विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय अपने देश से  कभी दूर नहीं हो पाए। यह त्रिकोनी देशी महक हमें यहाँ हमेशा ही महकाती रहती है. और यह त्रिकोनी पवित्र हवन कुंड जलता ही रहेगा जब तक प्रयास रुपी हवन सामग्री इसमें डलती रहेगी, ऐसी हर प्रवासी भारतीय की कामना है। जिस तरह पूरी दुनिया में अँग्रेजी का बोलबाला है, और भारतीय अँग्रेजी, ब्रिटिश अँग्रेजी तथा अमेरिकन अँग्रेजी जैसे पदबंध प्रचलित हो गए हैं... वैसे ही एक संभावना हरेक हिन्दी प्रेमी के मन में है कि, ठीक इसी तरह भविष्य में हिन्दी भी, ब्रिटिश हिन्दी, अमेरीकन हिन्दी या रशियन हिन्दी हो जाये। इस सपने को पूरा करने के संदर्भ में हमें उन देशों से सीखना होगा जो अपनी मात्रभाषा से प्रेम करते है और उसके प्रचार के लिए कड़ी मेहनत करते हैं।
हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग एवं सफल मंच पर विराजमान करने का श्रेय इन सभी विदेश में रह रहे हिन्दी भाषा के साहित्यकारों को जाता हैI परिणामस्वरूप आज हिन्दी का विकास अन्य भारतीय भाषाओं की कीमत पर नहीं बल्कि उनके साथ हो रहा है, और यहाँ तक कि वह अँग्रेज़ी से प्रतिस्पर्धा न करके अपने सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख हो रही है I कुल मिला कर यहाँ अमरीका में रहने वाले अप्रवासी भारतीयों ने एक अपना भारत यहाँ भी बसा लिया है।

Thursday, 27 September 2012

उसके जाने के बाद

उसके जाने के बाद मैं 
ताकती रही उसके क़दमों के निशाँ 
मैंने कहा था उसे 
हो सके तो उन्हें भी साथ ले जाना
अब कितना मुश्किल है उसका जाना..
... 
जिंदगी के जाने के बाद मै
छूती रही उसकी परछाई के निशां
मैने कहा था उसे
हो सके तो साँसे भी साथ ले जाना 
अब कितना मुश्किल है जीना ....

यादों के जल जाने के बाद मै
बिनती रही उसकी राख़ के निशां
मैने कहा था उसे 
हो सके तो राख़ उढ़ा ले जाना
अब कितना मुश्किल हैं ढेर में जीना..
.

Thursday, 23 August 2012

अभी-अभी 'विश्व हिन्दी न्यास', के द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में शिरकत करके लौटी हूँ.....सियाट्ल से पधारे हास्य कवि श्री अभिनव शुक्ल और न्यू यॉर्क से श्री अनूप भार्गव जी ने कवि सम्मेलन में 4 चाँद लगा दिये। हमने भी कविता पाठ किया.......एक फोटो अभिनव जी को अपने संग्रह भेंट करते हुए।


आज दिनांक 12 अगस्त, दैनिक हिंदुस्तान ने , हाल ही में प्रकाशित हमारा काव्य-संग्रह, 'साँसों के हस्ताक्षर" के बारे में एक संक्षिप्त रिपोर्ट प्रकाशित की है......


कवयित्री सम्मेलन में सम्मान लेते हुए........


। फिल्मोत्सव । 

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन 21 दिसम्बर से 27 दिसम्बर के मध्य सीरी फोर्ट आडिटोरियम एवं एनडीएमसी कंन्वेशन सेंटर में किया जाएगा। · ...........

Report......by Indiantelevision.com!

In addition to the Non Resident Indian Films, a section dedicated to the NRI writers has also been specially included in the festival in which a poetry collection book shall be launched as well. The book is edited by none other than the well-known senior journalist, Poetess and writer, Anita Kapoor from California. The best poem in this collection will be honoured with the Silver Minar.

Monday, 20 August 2012

फेस्बूक





-          डॉ अनीता कपूर

फेस्बूक बनाम पिंगपोंग
मार्क एलियट ज़ुकेरबर्ग ने, फेस्बूक का ईज़ाद करके, विश्व के बड़े से गोले को जैसे एक छोटी सी पिंगपोंग गेंद में तबदील कर दिया। आप घर बैठे या चलते-फिरते, दुनिया के किसी भी कोने से, कहीं भी, किसी से बात कर सकते हैं। फेस्बूक की अपनी एक दुनिया और अपना ही एक आकाश है। बिनदेखे, बिनजाने बेखौफ मगर एक अपनेपन और प्यार से एक दूसरे के साथ, भावनाओं से जुड़ना, सम्मान....घनिष्ठता...मोह...की लहर ने उन फकेबुकियों को अपनी लपेट में ले लिया है, जो इसका सही महत्व समझते है, इस सामाजिक नेटवर्क की इज्ज़त करते है....फिर चाहे वो लेखक हो या साहित्यकार, फिल्म के लोग हो, राजनीति से हो, या कोई ग्रहणी। उम्र और जातपांत से परे फेस्बूक मित्रता का वो नशा है....जिसके बिना न तो हमारी सुबह होती है और न ही रात। नए मित्रों से परिचय, और विचारों का आदान-प्रदान, आपकी पहचान का दायरा बढ़ाता है। पर अफसोस कि, यहाँ भी कुछ असामाजिक तत्व, अपने-अपने अंदाज मे गंदगी फैलाने से बाज नहीं आते। कंपनी बाग समझ अपने पुरुष होने की मानसिकता में जकड़े, औरतों पर छींटाकशी यदा-कदा करते दिख जाते हैं। बदलते परिवेश और समाज के चलते कुछेक युवा वर्ग भी अश्लील हरकतों से बाज़ नहीं आते, जिन्हे देख शर्म के साथ-साथ अफसोस भी होता है, यह सोचकर कि, हमारे समाज को क्या हो गया है? बावजूद इसके, फेस्बूक आपको वक्त के साथ चलाता है, और सब खबरों से भी वाकिफ़ करवाए रखता है। कितनी अनोखी बात है न कि, घर के अंदर रहकर भी आप फेस्बूक के ज़रिए दुनिया के साथ पहले से भी ज्यादा जुड़ गए है....इस आज़ादी के साथ कि, अगर कोई मित्र आपकी भावनाओं को लगातार ठेस पहुंचाए तो बिना किसी बहस या झगड़े के, चुपके से उसे अपनी मित्रता-सूची से बाहर कर दें। किसी मित्र के घर जाना हो तो बगैर फोन किए उसकी वाल पर कुछ भी पोस्ट कर देना, बिना अनुमति लिए घुसपैठ करना, तांक-झांक करना। कहिए- मिलेगी ऐसी आज़ादी कहीं और?  
  

Tuesday, 14 August 2012

आजादी-दिवस पर कुछ हाइकु


कैसे बचेगा
शहीदों का ये देश
करो चिंतन

कैसे बचेगी
संस्कृति ये पुरानी
करो मंथन  

आओ उखाड़ें
भ्रष्टाचार की जड़ें
बदल बीज

सिकुड़े दिल
सिमट रही धरा
सींचों लहू से

चैनों अमन 
पुकारता वतन
सुन लो इसे 

Tuesday, 7 August 2012

त्रिवेणी में प्रकाशित कुछ सदोका





त्रिवेणी में प्रकाशित कुछ सदोका 

WEDNESDAY, AUGUST 8, 2012

मैं मुसाफिर(सेदोका)


1-डॉ अनीता कपूर
1
पी डाला दर्द
रूह की चिमनी से
जैसे गीत -संगीत
पकड़ धुआँ
लपेट चाँदनी में
लिखा रंगीला गीत ।
2
कवि की आँख
वेदना की धरती
फूटती  हैं कोंपलें,
शब्दों मे पिरो 
करें काव्य-सृजन
खुदा की नियामत  ।
3
चाहे चर्च या
हो गुरुद्वारा कोई
भक्ति के वृक्ष सभी
माँगे है खाद
प्रेम मुहब्बत की
अरदास  रब की ।
4
दिल दिमाग
चलता है चक्की-सा  
पिसता दिल ही है,
कशमकश
में फिसली जिंदगी
छूटता वक्त ही है 
5
मैं मुसाफिर
जानकर भी भूली
मिट जाएँगे सब,
ये रिश्ते नाते
बन जाऊँगी मैं भी
अफसाना पुराना ।
 6
न पहचान
असली लाभ-हानि
की रही है मुझको,
जो पहचाना
तो बस दिल ही को

Wednesday, 25 July 2012

अलाव



अलाव
तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से
समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नयी कविता के लिए ?

Monday, 16 July 2012

आज इंडिया वोमेन प्रेस क्लब, दिल्ली में कुछ मित्रों, और बड़े भाई श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ,जी के सहयोग से और आदरणीय व् प्रसिद्ध लेखक बलदेव वंशी जी के आशीर्वाद से, अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, हमारे २ संग्रह (हाइकु और कविता) को आशीर्वाद मिला. शुभकामनाएं देने के लिए श्रीमती काम्बोज, सुदर्शन रत्नाकर जी, श्री सुभाष नीरव जी, श्री सुरेश यादव जी, श्री सतीशराज पुषकरन जी, डॉ जेन्नी शबनम, सीमा मल्होत्रा जी, सुशीला शिव्रान जी, भूपी सूद जी, प्रवासी भारतीय से श्री अनिल जोशी जी व् सरोज शर्मा जी

Monday, 9 July 2012

अनुभव रबरसों पहले कॉलेज की वार्षिक पत्रिका संपादित किया करती थी। ......अब एक अरसे बाद फिर, 'पोएट्स कोर्नर' नामक संस्था द्वारा और रोचक पब्लिशिंग, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित, एक कविता संग्रह, "बिखरी ओस की बूंदें", को शीला डोंगरे जी के साथ संपादित किया। अच्छा हा।

Thursday, 5 July 2012

तांका

नदी में चाँद
तैरता था रहता
पी लिया घूँट
नदी का वही चाँद

आज हथेली मेरे...

Friday, 29 June 2012

अधूरी नज़्म


अधूरी नज़्म

मिले थे हम बरसों बाद
तुमने कुछ सुनाया था...
मैंने भी उसमे कुछ जोड़ा था
तुम्हारी अधूरी नज़्म को
रूहानी शब्दों से थोड़ा सा मोड़ा था
मैंने जब कहा, कि देखो
अधूरी नज़्म को आगे बढा दिया
तुमने कहा, नहीं
ज़िंदगी को आगे बढ़ा दिया..
-0-

Tuesday, 12 June 2012

दोड़े शहर 
रेलगाड़ी हुआ सा 
लटके हम
जिंदगी को पकड़ें 
जैसे गोद में बच्चा....

Tuesday, 13 March 2012


मत दिखाओ मेरे पावोँ को अपने मन की सड़क
फिर क्या पता वो रास्ता मुझे रास आ जाए

Wednesday, 29 February 2012


चलो फिर बताएँगे
जमाने ने सितम कितने किए
और कितने हमने सहे
चलो फिर बताएँगे
लोगों ने कितनी बार तोड़ा दिल
और हमने कितने सिये
चलो फिर बताएँगे......(अनिता कपूर)

Tuesday, 21 February 2012


तेरी परछाइयाँ और मेरी परछाइयाँ

चलो आज मिलकर एक चेहरा हो जाएँ 


तेरी तन्हाईयां और मेरी तन्हाईयां

चलो आज मिल कर हसीन आशियाँ हो जाये


नक़द मुलाकातों के सिलसिले शुरू तो करें

फिर उधार के रिश्ते खुद ही दरकिनार हो जाएँ


रिश्तों की कोख से ख़ूब जन्मेंगी नज़्में

मुन्तजिर निगाहों की झलक तो मिल जाये


मक़तल न बन जाये कहीं दश्त-ओ-दिल मेरा

ज़रा लफ़्ज़ों को इश्क़ का पैगाम तो मिल जाये


Tuesday, 7 February 2012

खिड़कियाँ




लफ़्ज़ों के झाड़ ऊगे रहते थे

जब तुम थे मेरे साथ

हम दोनों थे हमारे पास

रिश्ते की ओढनी थी

लफ़्ज़ों के रंगीले सितारे 

टंके ही रहते थे

नशीले आसमां पर.....

फिर तुम चले गए

कई बरसों बाद

अचानक एक मुलाक़ात

हम ओढनी के फटे हुए

टुकड़ों की तरह मिले

मेरा टुकड़ा

तुम्हारे सड़े टुकड़े के साथ

पूरी न कर पाया वो अधूरी नज़्म

सिसकते टुकड़ों पर फेर लकीर

सांस लेने के लिए

खोल दी है मैंने

सभी खिड़कियाँ